विजयदशमी एवं संघ स्थापना दिवस पर आप सब को हार्दिक शुभकामनाएं ।

विजयदशमी एवं संघ स्थापना दिवस पर आप सब को हार्दिक बधाई हो ।

दशहरा और विजयादशमी नवरात्री के नौ दिनों के बाद आता है। इस दशमी को विजय दशमी क्यों कहते हैं? किस विजय का प्रतीक है ये?

नवरात्रि और दशहरा ऐसे सांस्कृतिक उत्सव हैं जो सभी के लिए महत्वपूर्ण और अहम हैं। ये उत्सव चैतन्‍य के देवी स्वरुप को पूरी तरह से समर्पित है। कर्नाटक में दशहरा चामुंडी से जुड़ा है, और बंगाल में दुर्गा से। इस तरह से अलग-अलग जगहों पर यह अलग-अलग देवियों से जुड़ा है, पर मुख्य रूप से स्त्रीत्व या देवी के बारे में ही है।

दशहरा उत्सव का दसवां दिन

नवरात्रि, बुराई और ऊधमी प्रकृति पर विजय पाने के प्रतीकों से भरपूर है। इस त्यौहार के दिन, जीवन के सभी पहलुओं के प्रति, जीवन में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तूओं के प्रति अहोभाव प्रकट किया जाता है। नवरात्रि के नौ दिन, तमस रजस और सत्व के गुणों से जुड़े हैं। पहले तीन दिन तमस के होते हैं, जहां देवी रौद्र रूप में होती हैं – जैसे दुर्गा या काली। उसके बाद के तीन दिन लक्ष्मी को समर्पित हैं – ये देवी सौम्य हैं, पर भौतिक जगत से सम्बंधित हैं। आखिरी तीन दिन सरस्वती देवी यानि सत्व से जुड़े हैं, ये ज्ञान और बोध से सम्बंधित हैं।

दशहरा –  विजय  का दिवस

इन तीनों में अपना जीवन समर्पित करने से आपके जीवन को एक नया रूप मिलता है। अगर आप तमस में अपना जीवन लगाते हैं तो आपके जीवन को एक तरह की शक्ति आएगी। अगर आप रजस में अपना जीवन लगाएंगे, तो आप किसी अन्य तरीके से शक्तिशाली होंगे। और अगर आप सत्व में अपना जीवन लगाएंगे, तो एक बिलकुल अलग तरीके से शक्तिशाली बन जाएंगे। लेकिन अगर आप इन सबसे परे चले जाएं तो फिर ये शक्तिशाली बनने की बात नहीं होगी, फिर आप मुक्ति की ओर चले जाएंगे। नवरात्रि के बाद दसवां और अंतिम दिन विजयादशमी या दशहरा का होता है –  इसका मतलब है कि आपने इन तीनों पर विजय पा ली है। आपने इन में से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, आपने हर गुण के आर-पार देखा। आपने हर गुण में भागीदारी निभाई, पर आपने अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया। आपने सभी गुणों को जीत लिया। ये ही विजयदशमी है – विजय का दिन। इसका संदेश यह है – कि जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से कामयाबी और विजय प्राप्त होती है।

दशहरा भक्ति और अहोभाव

हम अपने जीवन को सफल बनाने के लिए बहुत से उपकरणों को काम में लाते हैं। जिन उपकरणों से हम अपना जीवन रचते हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण हमारा अपना शरीर और मन है। जिस धरती पर हम चल्रते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं और जो खाना खाते हैं – इन सभी वस्तूओं के प्रति अहोभाव रखने से हमारे जीवन में एक नई संभावना पैदा हो सकती है। इन सभी पहलुओं के प्रति अहोभाव और भक्ति रखने से हमें अपने सभी प्रयत्नों में सफलता मिलेगी।

 

💐 राष्ट्रीयता, एकात्मता और समरसता संघ का लक्ष्य💐

युगों से देश पर विदेशी आक्रमणों का सिलसिला जारी था। ब्रिटिश शासनकाल की बात है कि लाखों करोड़ों देशवासियों की तरह डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार भी कभी कांग्रेस पार्टी के मंच से तो कभी क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो कर देश को परतंत्रता की बेडिय़ों से मुक्त करवाने का प्रयत्न कर रहे थे। लेकिन बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी डा. हेडगेवार ने देश की दासता रूपी बीमारी के सामयिक उपचार के बारे नहीं बल्कि इसके स्थाई ईलाज के बारे में सोचना शुरु किया। उनका मानना था कि अपना भारत कई बार परतंत्र हुआ। इसका कारण था देशवासियों में राष्ट्रीयता का अभाव और संगठन शक्ति की कमी। जब तक इन बीमारियों का स्थाई इलाज नहीं होता तब तक देश पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं हो पाएगा। युनानी, हुण, कुषाण गए तो अफगान, तुर्क, मुगल आए। जब वे गए तो अंग्रेजों ने देश पर कब्जा कर लिया। देशवासियों को जब तक राष्ट्रप्रेम व संगठन शक्ति का महत्त्व समझ नहीं आएगा तब तक यह सिलसिला चलता रहेगा। अंग्रेजो के चले जाने के बाद कोई और आकर इस देश को अपना दास बना लेगा। डा. हेडगेवार की इसी सोच से आज विजयदशमी के दिन साल 1925 को जन्म लेने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज बीबीसी लंदन के दावे अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन बन चुका है।

आओ पता लगाएं कि क्या है इसकी कार्यपद्धत्ति जिसके चलते बिना किसी सरकारी या प्रशासनिक सहायता, राजनीतिक विरोध के बावजूद यह संगठन निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है। इसका साधारण उत्तर है कि समाज में सामान्य व्यक्ति किसी समस्या पर चर्चा मात्र करता है या अधिक से अधिक उसका ढिंढोरा पीटता है परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक उस समस्या को व्यक्तिगत मान कर उसके समाधान का प्रयास करता है। यही कारण है कि संघ को हर वर्ग स्वीकार कर रहा है और संघ के विरोधी भी जब संपर्क में आते हैं तो इसकी कार्यपद्धत्ति के कायल हो जाते हैं।

किसी ने परमपूजनीय डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी से पूछा था, क्या संघ भारत में देशभक्त पैदा करेगा। इस पर डाक्टर साहिब ने कहा, ‘नहीं! हमारे देश के लोग देशभक्त हैं परंतु उनकी देशभक्ति केवल संकटकाल में ही परिलक्षित होती है। देश या समाज पर कभी विपत्ती आती है तो सभी एकजुट हो कर उसका सामना करते हैं परंतु संघ देशवासियों को सिखाएगा कि किस तरह नागरिक सामान्य जीवन में, अपनी दिनचर्या में देशभक्ति के गुण का पालन करे। समाज की छोटी-बड़ी समस्या, संकट का समाधान निकाले। संघ के पूर्व प.पूजनीय सरसंघचालक श्री रज्जू भैया ने कहा था कि अगर किसी क्षेत्र में शाखा चलती है और वहां मौजूद किसी समस्या का समाधान नहीं हो पा रहा तो समझो कि वह शाखा यंत्रवत अर्थात औपचारिक भर है। शाखा व स्वयंसेवक के होने का अर्थ है उस समस्या व संकट का समाधान पेश करना और समाज को इनसे मुक्ति दिलवाना।

समस्याओं का समाधान निकालने के गुण के चलते ही स्वयंसवेक अपने क्षेत्र में संघ का सच्चा प्रतिनिधि बनता है। बहुत से स्थानीय लोग न तो संघ संस्थापक डाक्टार हेडगेवार जी को जानते हैं और न ही वर्तमान अधिकारियों को। वो तो उस स्वयंसेवक को देख कर संघ के बारे अपनी छवि बनाता है। आज पंजाब में अनेक तरह की सामाजिक समस्याएं हैं। अधिकतर संगठन व लोग उनका ढिंढोरा मात्र पीटते हैं परंतु संघ अपनी शाखाओं के माध्यम से इन बुराईयों से सफलतापूर्वक लड़ रहा है। इसी साधारण सी कार्यपद्धत्ति के चलते संघ अपने स्थापना के 91 सालों में निरंतर आगे बढ़ रहा है और राष्ट्रीय चिंतन के केंद्र बिंदू के रूप में अपना स्थान बना चुका है। देश पर जब भी कोई संकट आता है तो देशवासी संघ की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। जो ताकतें देश का विरोध करती हैं संघ उनके लिए दुश्मन नंबर एक बन जाता है। अभी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री श्री नवाज शरीफ ने कहा है कि भारत को अगर कमजोर करना है तो संघ पर प्रहार करो। इससे पहले चीन कह चुका है कि सशक्त हिंदुत्व भाव के होते हुए भारत को विभाजित नहीं किया जा सकता। देश के अंदर राष्ट्रविरोधी ताकतें हों या विदेशी ताकतें सभी अपने कार्यों में संघ को कट्टर सबसे बड़ी बाधा मानती है। वास्तव में यही संघ की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

संघ अपने छह पर्वों के माध्यम से समाज में राष्ट्रीयता, संगठन शक्ति और समरसता का भाव पैदा कर रहा है। नववर्ष प्रतिपदा व हिंदू साम्राज्य दिवस कार्यक्रमों से समाज को राष्ट्रीयता का संदेश दिया जाता है। देशवासी अपनी संस्कृति, अपने युगों पुराने इतिहास पर गौरव करें और अपने जीवन में राष्ट्रीयता का भाव भरते हुए अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करें। रक्षाबंधन व मकर संक्रांति पर्व सामाजिक समरसता का संदेश लेकर आते हैं। रक्षाबंधन वाले दिन स्वयंसेवक परस्पर रक्षासूत्र बांधते हैं और समाज के उपेक्षित वर्ग के साथ यह पर्व मना कर उस वर्ग में अपनत्व की भावना पैदा करते हैं। मकर संक्रांति पर्व पर बंटने वाली घी-खिचड़ी व गुड़-तिल संदेश देते हैं कि जब तक समाज के सभी वर्ग एकसाथ नहीं मिलते तब तक राष्ट्रीय समाज की कल्पना संभव नहीं है। इसी तरह विजयदशमी और व्यास पूजा संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। इस दिन संगठन के सभी स्वयंसेवक एकत्रित होते हैं, उनके कदम, विचार एक दिशा में चलते हैं, एक वेष धारण करते हैं। इससे स्वयंसवेक को एहसास होता है कि वह एक शक्ति और संगठन के साथ जुड़ा है। संगठन शक्ति से प्रेरणा लेकर ही वह स्वयंसेवक असाधारण काम कर जाता है। समाज में इन्हीं गुणों को को ही अपने-अपने तरीके विकसित करने का प्रयास किया हमारे महापुरुषों ने। भगवान श्रीराम ने साधारण वनवासियों की संगठित शक्ति से उस समय की सबसे बड़ी राजनीतिक व सैनिक शक्ति रावण को परास्त किया। भगवान बुद्ध व भगवान महावीर जी ने समाज में बराबरी का संदेश दिया। जगद्गुरु श्री गुरू नानक देव जी ने लंगर-पंगत के जरिए समाज को एकता के सूत्र में पिरोया और मानस की जाति को एक बताया। संघ अपने इन्हीं महापुरुषों के आदर्शों को सामाजिक जीवन में अपनी शाखाओं, अपने संगठनों, अपने कार्यक्रमों के जरिए संप्रेषित करता है।व्यक्ति से व्यक्ति संपर्क की कार्यपद्धति, शुद्ध सात्विक प्रेम को आधार बना कर संघ देश में नागरिकों के निरंतर राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण कर रहा है। आज विजयदशमी का पर्व सीमोल्लंघन का पर्व भी है। इसका अर्थ है कि हमें धर्म की रक्षा, अच्छाई के प्रचार प्रसार के लिए इस दिन अपनी कार्यक्षमता से आगे निकल कर अपने संगठन व समाज के लिए काम करने की इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। यह पर्व अधर्म पर धर्म, बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी है। अधर्म कितना भी शक्तिशाली हो परंतु अंतत: जीत धर्म की होती है। अच्छाई को परेशान तो किया जा सकता है परंतु परास्त नहीं। दशहरा पर्व के इन्हीं संदेशों को लेकर आओ हम आगे बढऩे का प्रण करें।